प्रेम की अभिलाषी…

प्रेम की अभिलाषी स्त्री को जब नही मिल पाता प्रेम
तो वो अकड़ जाती हैं
किसी सूखे ठूँठ की तरह
वो बन जाती है किसी पुराने कमरे की दीवार पर लगी तस्वीर सी



प्रेम की भागी स्त्रियाँ बन कर रह जाती हैं सिर्फ़ सुंदरता की अतुल्य मिसाल
बेजान और धूल खाई हुई


प्रेम के भीतर व्यर्थ होती वो
सपने और यथार्थ को लपेटे जीवन का बोझ उठाये चलती जाती है सन्नाटे की नोंक पर



अब वो इस तरह हैं कि बहुत सी ऋतुयें आती जाती हैं पर उन पर कोई असर नही होता
वो मन ही मन बीती नईं अनंत बातो का जाल बुनती रहती हैं और उसी मे उलझती जाती हैं


वो नंगे पाँव मे काँटों सी चुभती हैं
ख़ुद को लगातार व्यस्त और मौन सोचती हुई

और एक दिन मृत्यु की सफेद चादर पर
दूर किसी छोर से आती हवा उन्हें ढँक लेती है…!!

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